23.12.12

यह है जीवन शाला



 

शिरीष खरे

 

दो दशकों से भी अधिक समय के फ्रेम में अगर नर्मदा को केंद्र में लाएंगे तो आंखों के सामने दो चित्र उभर आएंगे- पहला बिजली, पानी और विकास की गंगा का बहाव लेकर आएगा और दूसरा उसी गंगा में हजारों लोगों के डूब का दर्द लिए तैर जाएगा.


नर्मदा की लड़ाई के ये चित्र जब-तब सुर्खियों के साथ प्रकाशित होकर उत्सुकता पैदा करते रहे हैं. लेकिन क्या आप यह भी जानते हैं कि सरदार सरोवर बांध के खिलाफ लड़ाई के साथ एक धारा और भी चल रही है, और यह है लड़ाई के सामानांतर पढ़ाई की धारा.

बांध से प्रभावित आदिवासियों को लगता था कि लड़ाई के साथ-साथ पढ़ाई होनी चाहिए, यही सोचकर आदिवासियों ने अपने बच्चों के लिए एक पढ़े-लिखे कल की नींव रखनी चाही थी, और इसी नींव का नाम पड़ा ‘जीवन शाला’, आजादी के 41 वर्षों बाद पहली मर्तबा यहां जमीनी स्तर पर शिक्षण के केंद्र चलाए गए, जिन्होनें अंधेरे में डूबे कई गांवों में उजाला बांटने का काम किया, उजाला बांटने का यह सिलसिला आजतक जारी है, जिसका आदर्श वाक्य है- 'लड़ाई-पढ़ाई साथ-साथ', और निशाना सीधा सधा है- 'नर्मदा बचाओ मानव बचाओ'.

जीवन शाला की यह कहानी उन लोगों के लिए प्रेरक है जो मौजूदा व्यवस्‍था में विकल्प का सपना तलाशते हैं. यह उन भद्रजनों को इतना भरोसा दिलाने के लिए काफी है कि गरीबों को भी अपने बच्चों की पढ़ाई की फ्रिक रहती है. कहानी की पृष्ठभूमि में विंध्यांचल और सतपुड़ा पर्वतमालाओं की ओट में बहुत छोटे-छोटे और सुंदर गांव हैं, जो अपने जिला मुख्यालयों से बेहद दूर-दूर, घनघोर जंगलों के बीच और पानी के रास्तों पर पड़ते हैं, जिन पर कदम रखते ही झूम उठते हैं आदिवासी और हिलने लगती हैं पहाड़ियां, जिन पर कोई साधारण शालाएं नहीं बल्‍कि जीवन की शालाएं लगती हैं, जहां टंगे घंटे साधारण लग तो सकते हैं लेकिन हैं नहीं क्योंकि सरकारी तंत्र की मुख्यधारा से अलग-थलग होने के चलते स्कूल भवन बनने और शिक्षक आने की राह तकने का खेल टूट चुका है. देदली वासवे, विजय भाई, विट्ठल तदवी, नूरजी, भीमसिंग, नारायण भाई, गिरधर भाई, मालसिंग, रमेश भाई, पिंजरी पावरा, कालूसिंह, सियाराम भाई और उनके कई साथियों की टूटी-फूटी बातों को एक जगह जमा करने पर जीवन शाला बनने का पता चलता है :

ऐसा नहीं था कि बांध विस्थापितों ने पढ़ाई के लिये कभी सरकार से गुहार न लगाई हो. बाकायदा लगाई, अधिकारियों को आवेदन भी दिए, फाइलें भी बनीं, जो कभी नहीं ही सरकीं. हर बार सरकारी अफसर वादा करते और स्थिति जैसी की तैसी बनी रहती. लेकिन आज बच्चे घंटे पर जब टन-टन-टन की आवाजें करते हैं तो देवदूत, परियां, उनके किस्से, श्लोक, आयतें और आश्वासन सब असरहीन इसलिए भी होने लगते हैं कि ज्ञान के क्षेत्र तक गरीबों की पहुंच को रोकने का एक पुराना इतिहास रहा है और 1991-92 में चिमलखेड़ी के अलावा नीमगांव में दो जीवन शाला शुरु करके इतिहास के एक अध्याय को बदलने की शुरुआत हुई. एक तो काम नया-नया था और दूसरा ज्यादा कुछ मालूम नहीं था इसीलिए चुनौतियां पहा‌ड़ियों के समान तनकर खड़ी थीं. इन सबके बावजूद जीवन शाला का आधार स्वाबलंबी रखा गया और इसी आधार पर चलकर आज बच्चे शाला में झाड़ू लगाने से लेकर पानी लाने, भोजन पकाने और बर्तन धोने तक के बहुत सारे काम खुद करते हैं.

आदिवासी नेता गोरखू और उनके साथियों से पता चला है कि शुरू से ही सीमित साधनों, संसाधनों और समुदायिक क्षमताओं के मुताबिक बेहतर पढ़ाई का माहौल बनाने पर जोर दिया गया था. इसका मकसद सरकारी स्कूलों की शून्यता भरना भर नहीं बल्कि आदिवासी जीवनशैली को कायम रखना भी था. इस लिहाज से जीवन शाला ने आदिवासी शैली को ध्यान में रखते हुए घाटी के बच्चों के लिए जीवन और आजादी के नए मायने भी दिए.

भले ही जीवन शाला का जन्म विस्थापन रोकने की लड़ाई का नतीजा रहा हो लेकिन थोड़े-से ही समय में यह स्थान आंदोलनकारियों के लिये विविध चर्चा, रणनीति और कार्यक्रम आयोजन का मुख्य केंद्र बन गए. इस तरह आंदोलन और जीवनशाला, दोनों एक-दूसरे के लिए मददगार साबित हुए और यह केंद्र आदिवासी एकता और भागीदारिता के प्रतीक बन गए.

आज इस आदिवासी इलाके में भादल, मणिबेली, जलसिंधी और जीवननगर सहित 13 जीवन शाला हैं, जिसमें आसपास के 18,00 से ज्यादा बच्चों, जिनमें तकरीबन 660 लड़कियां भी हैं, 58 गुरुओं और सैकड़ों लोगों की सीधी सहभागिता से भूख, गरीबी, शोषण, रोग जैसे शब्दों के वाक्य बनवने से लेकर उनसे दो-चार होने का दूनिया भी सिखाया जा रहा है.

जीवन शाला में अपने गांव की बोली को शुरु से ही वरीयता दी गई है. जैसे कि कुछ किताबों का प्रकाशन पवरी, भिली और भिलाली बोलियों में किया गया है. बच्चे मानते हैं कि अगर जीवन शाला न होती तो उन्हें उनकी बोली की किताबें कभी नहीं मिल पातीं. गुरुओं ने 'अमर केन्या' (हमारी कथाएं) में कुल बारह आदिवासी कहानियों को समेटा है. इसके अलावा सामाजिक विषयों पर 'अम्रो जंगल' (हमारा जंगल) और 'आदिवासी वियाब' (आदिवासी विवाह) जैसी किताबों को लिखा गया है. केवल सिंह गुरूजी ने 'अम्रो जंगल' किताब में यहां की कई जड़ी-बूटियों का महत्व बताया. खुमान सिंह गुरूजी ने 'रोज्या नाईक, चीमा नाईक' में अंग्रेजी साम्राज्य के समय संवरिया गांव के संग्राम पर रोशनी डाली. ऐसी किताबों में आदिवासी समाज का इतिहास, साहित्य, कला और परंपराओं से लेकर स्थानीय भूगोल, प्रशासन और कानूनी हकों को पाने तक की बहुत-सी बातें होती हैं. ये किताबें जैसे अपनी और बाहरी दुनिया के बीच दोस्ताना रिश्ता बनाए रखने के संदेश देती हैं. पढ़ाई को और भी दिलचस्प बनाने के लिए और भी कई तरीके अजमाए जा रहे हैं, जैसे कि 'अक्षर ओलखान' (अक्षरमाला) में स्‍थानीय बोली के मुताबिक अक्षरों की पहचान कराना और उन्हें जोड़ना सिखाया जा रहा है, जैसे कि 'क' से कुकडी (मुर्गी), 'ग' से गधडो (गधा), 'ट' से टुपली (टोकरी), 'ढ' से ढूल (ढोल) और 'ध' से धंदली (धनुष) वगैरह. इस दौरान कई आवाजों को निकाला और आसपास की चीजों से उनका मेल-जोल कराया जाता है. गानों, चित्रों और खेलों से पढ़ाई-लिखाई की कई विधियों का भी अभ्यास कराया जाता है.

जीवन शाला में पढ़ाई-लिखाई का तौर-तरीका इतना सहज रखा गया है कि नर्मदा के पानी में बच्‍चे अपनी स्लेटें धोते हैं और इधर-उधर पड़े कंकड़ों से गणित सीखते हैं. ये बच्चे किनारे की रेत से कभी गांव का मानचित्र तो कभी मिट्टी से रोजमर्रा के काम में आने वाली जरुरी चीजें बनाते हैं. जहां तक अपने आसपास की दवाओं को पहचानने और उनके उपयोग की बात है तो पूरे जंगल को प्रयोगशाला की तरह इस्तेमाल किए जाने की सहूलियत यहां मौजूद है, तब गांव के बड़े-बूढ़े हर जड़ी-बूटी के नामों को उनके महत्व के साथ बताते हैं, साथ ही रस्सी बनाने से लेकर पानी रोकने, हल चलाने से लेकर मछलियां पकड़ने की ढेर सारी तरकीबों को बड़ी बारिकियों से सीखाते हैं.

गांव के सभी जन मिलकर छात्रों, शिक्षकों और संसाधनों के बीच एक बहुत अच्छा संबंध बनाते हैं. यह समय-समय पर बैठकें करके पाठ्यक्रमों को चुनने से लेकर पढ़ाई-लिखाई के नुस्‍खे, दोपहर का भोजन पकाने, उसे परोसने और लड़ाई के आयोजनों तक की सारी गतिविधियों में सहभागी बनते हैं. यह जन जीवन शाला को अपनी शाला कहते हैं, ये कहते हैं कि गांव से लेकर नदी के किनारे इनके हैं, बच्चों से लेकर गुरूजी और स्कूल से लेकर सारे कायदे इनके हैं, यानी यह पूरी प्रकृति और संस्कृति इनकी है, इनकी प्रकृति और संस्कृति कभी कमजोर नहीं होनी चाहिए.

बीस साल के इस समय अंतराल में जीवन शाला से निकली पहली पीढ़ी अब पक चुकी है, जो गुरुजी बनकर अपने संस्कारों को आगे बढ़ा रही है. हर साल सभी गांव की शालाएं मिलकर जो बालमेला आयोजित करती हैं उसमें भी एक जैसी विपदा से प्रभावित अलग-अलग आदिवासी समुदाय किसी गांव में जमा होते हैं और एक-दूसरे की संस्कृतियों को साझा करते हैं. अलबत्ता विस्थापन की प्रक्रिया ने इन्हें एक ऐसे बाजार में खड़ा कर दिया है, जहां जीवन की पगडंडी निकाल पाना बड़ा टेढ़ा हो रहा है, लेकिन जीवन शाला चलने से कैलाश जैसे कार्यकर्ताओं को एक सहूलियत हो गई है कि अगर उनकी लड़ाई से जुड़ी कोई खबर छपती है तो वे अखबार को खरीदकर अपने गांव ले आते हैं और जीवन शाला के बच्चों से उसे पढ़वा लेते हैं.

जहां देश के 48 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं, 6 से 14 साल की कुल लड़कियों में से 50 प्रतिशत लड़कियां ड्राप-आऊट हो जाती हैं, व्यापक स्कूल प्रणाली की क्षमता 5 प्रतिशत से भी कम हैं और बहुत सारी बोलियां डूब रही हैं वहां सरकार जीवन शाला से निकले बच्चों को सरकारी शिक्षा की धारा से जोड़ने की बात तो दूर उल्टा पूरे प्रयास को डूबाने पर तुली है. दूसरी ओर उजड़ने से जुड़ी आशंकाओं का डर जल, जंगल और जमीन के साथ-साथ अब जीवन के इन केंद्रों पर भी मंडरा रहा है. उजड़ने से जुड़ी आशंकाएं यानी दोबारा या बार-बार बसना, सरकारी योजना का लाभ न उठा पाना, कानूनी हकों से बेदखल हो जाना, अपने समुदाय से बेदखली, मेजबान समुदाय की आनाकानी, नया समायोजन, शोषण, यौन उत्पीड़न, अधिक खर्च, हिंसा, अपराध, अव्यवस्था, सीमित जमीन, निर्णय की गतिविधि से कटाव, अस्थायी मजदूरी, मवेशियों का त्याग, प्रदूषण, स्वास्थ्य-संकट, सुविधा और संसाधनों की कमी आदि-आदि इत्यादि. यानी एक तरफ है- बांध के चलते विस्थापन की विकट आशंकाओं का इतना भारी बोझ और दूसरी तरफ है- जीवन की शाला के मासूम बच्चों के हाथों में खुली किताबों-सा खुला आसमान, अभी यहां से इन्हें बहुत सारी परीक्षाएं पास करनी हैं.

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