22.7.10

पारधी गुनहगार क्यों ?

शिरीष खरे


एक बार बीड़ जिले के पाथरड़ी तहसील में कहीं चोरी हुई. कई महीने बीते, मगर चोर का अतापता न चला. आष्टी तहसील से थोड़ी दूरी पर चीखली गाँव हैं. इसी गाँव के पास घूमते-फ़िरते रहवसिया नाम का पारधी परिवार आ ठहरा. बस फिर क्या था, पुलिस ने उसे ही इतनी दूर की वारदात में अंदर डाल दिया. जहाँ रहवसिया दो महीनों तक जेल में रहा, वहीं गाँव में ऊँची जाति वाले उसके परिवार को आकर धमकाते और बोलते कि ज़ल्द से ज़ल्द यहाँ की ज़गह ख़ाली कर दो. जब वह जेल से छूटकर अपने ठिकाने पर आया तो ऊंची ज़ाति वालों ने उसे रस्सियों से बांध दिया. उससे कहा गया कि तुम लोग चोर और गांव के लिए अपशगुन होते हो.

एक बार राजन गांव में वास्तुक काले की पत्नी विमल ख़ेत में काम कर रही थी. पास के थाने के इंस्पेक्टर ने आकर बताया कि उसने सोने की पट्टी चुराई है. थाने चलना पड़ेगा. विमल के विरोध करने पर इंस्पेक्टर बोला- यह औरत कुछ तेज मालूम देती है और सोने की पट्टी हो न हो उसकी साड़ी के पल्लू में है. आज के दुःशासन बने इंस्पेक्टर ने दोपद्री का पल्लू खींच डाला.


एक बार धिरणी के पारधी नौज़वान गोकुल को चोरी के शक में धर दबोचा गया. गोकुल समझ नहीं पाया कि आखिर उसे क्यों पकड़ा गया था. वह जिस सुबह छूटा, उसी शाम फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. इसे पारधी आदमी की मानसिक स्थिति के तौर पर देखा जा सकता है.



पारधी यानी गुनहगार
कभी पारधी यानी पारध का अर्थ शिकार करने वाला था. मगर अब पारधी का मतलब गुनहगार हो गया है. पारधी एक ज़माने में राजा के यहां शिकार के जानकार के तौर पर जाने जानी वाली ज़मात थी. लेकिन देखते ही देखते इसे इतिहास, मिट्टी, मिथकों, क़ायदे क़ानूनों और अख़बारों में एक ‘गुनहगार’ ज़मात में बदल दिया गया.

दरअसल, अंग्रेज जब यहाँ से गए तो बहुत कुछ छोड़कर गए और पारधियों से जुड़ा यह लेबल भी उन्हीं में से एक है. इतिहास के ज़ानकार बताते हैं कि पारधियों ने तो बाहरियों को सबसे पहली और सबसे कड़ी, सबसे बड़ी चुनौतियाँ दी थीं. मराठवाड़ा के राजा पहले निज़ाम से हारे और उसके बाद अंग्रेजों से हारे थे. मगर उन राजाओं के लिए लड़ने वाले पारधियों ने कभी हार नहीं मानी थी. क्रांतिगाथा की पंक्तियाँ बताती हैं कि यह जंगलों में इधर-उधर हो गए और इन्होंने एक नहीं, कई-कई छापामार लड़ाईयाँ लड़ीं और जीतीं थीं. इसलिए मराठवाड़ा के जनमानस में अब भी कहीं-कहीं पारधियों की वीरता से जुड़े कुछ-कुछ क़िस्से बिखरे पड़े हैं.

अंग्रेज जब पारधियों की छापामार लड़ाइयों से हैरान-परेशान हो गए तो उन्होंने ‘गुनहगार जनजाति अधिनियम’ के तहत पारधियों को भी ‘गुनहगार’ ज़मात की सूची में डाल दिया. अंग्रेज गये और देश में आज़ादी आई मगर आज़ादी के बाद भी कानून खास कर पुलिस का नज़रिया नहीं बदला.

नाकाम सरकार
1924 में अंग्रेज हुकूमत द्वारा कथित तौर से ऐसे गुनहगारों के लिए देशभर में 52 बसाहट बनी थीं. सबसे बड़ी गुनहगार बसाहट शोलापुर में थी. मगर 1949 में यानी आज़ाद हिन्दुस्तान में सबसे पहले बालसाहेब खेर ने शोलापुर सेंटलमेंट का तार तोड़ा. 1952 में बाबासाहेब अंबेडकर ने गुनहगार बताने वाले अंग्रेजों के कानून को रद्द किया. 1960 में खुद जवाहरलाल नेहरू शोलापुर आए और गुनहगार घोषित ज़मातों से जुड़े मिथकों को तोड़ने के मद्देनज़र काफ़ी-कुछ साफ़-साफ़ किया.

मगर उसके बावजूद पारधी से जुड़े मिथकों को तोड़ने के के नज़रिए से राज्य सरकार अब तक नाकाम ही रही है, और आज भी मराठवाड़ा के किसी गाँव में ज्यों ही कोई चोरी होती है, पुलिस वाले सबसे पहले पारधियों की ख़ोज शुरु कर देते हैं. पारधियों को हिरासत में लेने वाली पुलिस इतने गैरकानूनी तरीके अपनाती है कि जो पुलिस को खुद अपराधी की श्रेणी में खड़ा कर दे लेकिन आखिर पुलिस के आगे किसकी चले?

आम धारणा यही है कि पारधी तो बस 'चोर' ही होते हैं. अगर थोड़ी देर के लिए ऐसा मान भी लिया जाए तो भी क्या उन्हें चोरी के दलदल से निकालना व्यवस्था का काम नहीं होना चाहिए. इस काम में जनता के साथ-साथ पुलिस का ख़ास रोल हो सकता है. मगर यह दोनों तो पारधियों को 'चोर' से ऊपर देखना भी नहीं चाहते. यही नज़रिया अपराधीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा देता है, जो किसी भी सरल और ईमानदार आदमी को चोर' चोर' कहकर अपराधी ठहरा, बना सकता है. यह नज़रिया साफ़ किए बगैर अपराध के वर्चस्व का ख़ात्मा करना मुश्किल होगा.



इतिहास बस पन्नों में
हम थोड़ा सा फिर इतिहास में झाँके और सोचे कि अगर पारधी रखवाली के काम के नहीं होते तो राजा उन्हें अपना सुरक्षा सलाहकार क्यों बनाते ? जैसे राजा कहता कि मुझे शेर पर सव़ार होना है तो पारधी शेर को पकड़ते और उसे पालतू बनाते. एक तो शेर को ज़िंदा पकड़ना ही बहुत मुश्किल, ऊपर से उसे पालतू बनाना तो और भी मुश्किल था. मगर वक़्त का तकाज़ा देखिए, आज के पारधी शासन की दहशत से परेशान हैं. यह जंगल की तरफ़ आती गाड़ियों को देखकर भागते हैं. इन्हें लगता है कि आसपास कोई वारदात हुई होगी जो पुलिस पकड़ने आ रही है.

कथाओं से भरे इस विशाल देश में भले ही पारधी ज़मात का इतिहास गौरवगाथा का रहा हो, मगर फ़िलहाल तो उनकी पीड़ाओं का ऐसा ग्रन्थ लिखा जा सकता है जिसकी जवाबदारी कोई नहीं लेना चाहता और जिसमें संकट को हरने की खोज भी भविष्य में दूर-दूर तक कुछ नहीं दिखलाई देती है.

सबसे बुरा तो पारधी बच्चों का स्कूल से बाहर रहना है, जिसके चलते अगली पीढ़ी का आने वाला कल भी काले अंधियारे में डूबा हुआ लगता है. ऐसे में इन बच्चों को यह सपना दे पाना कैसे संभव है कि देखो- पुलिस और लोग तुम्हारे पीछे नहीं पड़े हैं, वह तो तुम्हारे साथ खड़े हैं, और यह देखो- वह तुमसे हाथ मिलाना चाहते हैं ?

- - - - -



संपर्क : shirish2410@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं: