20.7.10

तिरूमली का पता ठिकाना कहां है ?

शिरीष खरे, मुंबई से



"क्या कह रहे हो, घर, बिजली, पानी के बारे में कभी सोचा है...अरे सोचने से सब मिल थोड़ी जाता है।" - ऊँची आवाज़ में सुनने वाली गुरिया गायकबाड़ ने ऐसा कहा था। तिरूमली ज़मात की यह बुजुर्ग औरत बीते साल सर्दी के मौसम की ज़ल्दी ढ़लती शाम को उस्मानाबाद के कलंब तहसील में टकराई थीं।






महाराष्ट्र के गाँवों और शहरों के रास्तों के बीच भटक रही तिरूमली ज़मात के पास अपना कोई पता ठिकाना नहीं होता है। यह अपने आराध्य देव यानी नंदी बैल के सिर पर महादेव-बाबा की मूर्ति, गले में घण्टी और कमर में रंग-बिरंगा कपड़ा बाँधने के बावजूद मटमैली ज़िन्दगी जी रहे हैं। विभागीय कार्यालयों और उसके भीतर बैठे कर्मचारियों के सामने हमेशा से अदृश्य रहने वाली ऐसी ज़मात वालों के नाम कभी मतदाता सूची में नहीं चढ़ पाते हैं...

हक से बेखबर
एक तरफ़ जहाँ मतदाता कार्ड, बीपीएल कार्ड और राशन कार्ड के अभाव में यह देश के नागरिक नहीं कहलाये जा सकते हैं तो दूसरी तरफ़, गाँव वाले इन्हें एक जगह पर चार दिनों से ज्य़ादा न तो ठहरते देखते हैं, और न ही ठहरने देते हैं। इसलिए अपनी आबादी का पूरा पता न तो तिरूमलियों को पता रहता है, और न ही राज्य-सरकार को ही इसका थोड़ा-बहुत अंदाज़ा रहता है। कुल-मिलाकर इनके हिस्से के किस्से, तर्क, आकड़े भी किसी एक ठिकाने पर न मिलकर बिखरे-बिखरे पड़े रहते हैं।

तिरुमली ज़मात के आसपास बुने जिस पूर्वाग्रहों ने उन्हें परदेशी बनाया हुआ है, ज़रूरी है कि सबसे पहले उन पूर्वाग्रहों को तोड़कर देखा जाए- अव्वल तो एक आम आदमी की तरह देखा जाए और उसके बाद एक आम हिन्दुस्तानी की तरह देखा जाए। इन पूर्वाग्रहों में सबसे पहला सवाल देश की राजनीति में उनकी हिस्सेदारी का सवाल है।

कहते हैं कि देश चुनाव से बनता है, और जनता अपने मत से अपनी तक़दीर ख़ुद बना सकती है। मगर जब ज़्यादातर तिरूमली ज़मात वालों के नाम ही मतदाता सूची से लापता हैं तो यह अपनी तक़दीर बदले भी कैसे बदले, और बहुमत आधारित व्यवस्था की कोई भी पार्टी वाला इनके क़रीब आए भी तो क्यों आए, और इनके लिए न्याय के दरवाज़े तक पहुँचे भी तो क्यों पहुँचे ?

यह सीधा-सा साधा-सा सच है कि चुनाव के बाद भी तो बहुत सारे मुद्दे भुला दिए जाते हैं, और चुनाव का दायरा सिकुड़ कर रह गया है। मगर तिरूमली ज़मात वालों के मुद्दे तो चुनाव के वक़्त भी शामिल नहीं हो पाते हैं। जबकि शहर के मुकाबले गाँव में मतदान ज्य़ादा हो रहा है और हाशिए पर लेटा एक आम आदमी भी अपने मत का वजन जान रहा है, तो यहाँ पहला सवाल यही है कि अगर तिरुमली लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से ही बाहर बैठे रहेंगे, तो कौन से धरातल पर लोकतांत्रिक हकों को पाने की उम्मीद में खड़े हो सकेंगे ?

और ऐसे हर सवालिया निशान या धोखे के आगे का हाल यह है कि यहाँ तिरूमली ज़मात वालों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है/इनके बच्चे पढ़-लिख नहीं सकते हैं/इनके हाथों में राशनकार्ड नहीं रहते हैं/ इनके नाम गरीबी रेखा के नीचे से कोरे रहते हैं/सरकारी अस्पताल में अपनी बीमारियों का इलाज या सहकारी बैंक से लोन लेने का सवाल दरअसल मीलों दूर का सवाल लगता है/ईज्जत, आत्मनिर्भर या बराबरी की दुनिया में जीने जैसी बातें कल्पना की ऊँची छलांगें मारने जैसी लगती हैं/और इनकी रज़ामंदी से ग्रामसभा का चलना तो किसी अतिशोयक्ति अंलकार से कम नहीं लगता है। सवाल-दर-सवाल लगता है जैसे इन्हें परदेशी समझना कोई सामाजिक मान्यता सी बन गई हो।

लालटेन की मद्धिम रोशनी में फ़टे-पुराने कपड़ों से लिपटी गृहस्थी लटकाने, गाना-बज़ाने के बीचोंबीच तिरुमली जितनी जगह/सहूलियतें अपने और अपने बच्चों और बूढों को देते हैं, उतनी ही जगह/सहूलियतें अपने साथ चलने वाले अपने गाय, बछड़े, कुत्ते, बकरियों को भी देते हैं। हमेशा साथ रहने वाली सादगी लिए, यह बहुत सारे झुण्डों के साथ, महाजीवन की छोटी-छोटी खुशियाँ लिए, बहुत पास-पास और पंक्तिनुमा तरीके से चलते हैं, और रोटीनुमा आटा-नमक तक को साझा करते हैं, यह तो इनकी आपसी जुड़ावों और हिलीमिली जीवनशैली से ओतप्रोत संस्कृति की तरफ़ एक इशारा भर है...

सफर के सन्नाटे में
मगर सच्चाई यह भी है कि आमतौर पर लोग दर-दर रोटी मांगकर पेट भरने को ही इनका काम समझ लेते हैं। जबकि दान देने-लेने के रिवाज़ को कमज़ोर किए बगैर तिरूमली तो क्या किसी ज़मात की तस्व़ीर नहीं बदली जा सकती है। इन भटके हुए लोगों को संवैधानिक रास्ते पर लाना और इन्हें इनका मुनासिब हक़ देना तो सरकार का काम है। मगर यह कोई हैरत की बात नहीं लगती कि मत-संतुलन की सांख्यिकी के सामने सरकार अपना फ़र्ज पूरा भी करे तो क्यों करे और किस तरह से करे ?

सच्चाई यह भी है कि नंदी बैल का खेल देखने वाले इनकी ज़िन्दगी को तमाशे से ज़्यादा कुछ नहीं समझते हैं। इसके बावजू़द आम तौर पर दुबले-पतले शरीर और हमेशा मुस्कुराते रहने वाले तिरुमलियों में एक संभावना दिखती है, वह यह है कि यह कहीं भी जाए- घूम फ़िरकर कुछ ज़गहों पर बार-बार और लगातार ज़रूर बने रहते हैं। इसकी वज़ह यह है कि यह गाय-भैंसों को ख़रीदने-बेचने का धंधा जो करते हैं। जब कोई गाय या भैंस पेट से होती तो यह उसे 15 हजार रूपए तक में खरीदते हैं और बड़े बाजार में 25, 30 हजार रूपए तक में बेच देते हैं। मगर बेचने से पहले यह उसे कुछ ज़गहों पर चराते रहते हैं। इन्हीं ज़गहों से चारे का धंधा भी करते हैं। इस काम के लिए इनके परिवार का कोई-न-कोई सदस्य ऐसी ज़गहों पर जरूर बना रहता है। यानी कि ऐसी ज़गहों से उनका रिश्ता लगातार बना रहता है। यही रिश्ता/संदर्भ इन्हें ‘महाराष्ट्र के गायरन जमीन कानून’ से जोड़ता है, जो कहता है कि 14 अप्रैल, 1991 के पहले तक जो लोग जिन ज़मीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें आजीविका के लिए उन ज़मीनों का पट्टा दे दिया जाए। दरअसल, इस कानून को अपनेआप में एक बड़ी संभावना के तौर पर देखा जा सकता है, जिसमें तिरूमली ज़मात वाले पथरीली ज़मीनों को खे़तों में बदल सकते हैं, और अगर वह ऐसा कर सकते हैं तो यह अपने बदलाव का एक कारगर रास्ता ख़ुद तैयार कर सकते हैं।

देखा जाए तो तिरुमली कोई ज़मीन से उजाड़े गए लोग नहीं हैं, बल्कि कल भी इनके नीचे से ज़मीन नदारद थी और आज भी इनके नीचे से ज़मीन नदारद ही है। मगर यह एक रास्ता उन्हें ज़मीन से छोड़कर, समाज और ख़ासतौर से ऊँची जाति वालों की ज़्यादतियों के खि़लाफ लड़ने और अपनी बात को दिल्ली-मुंबई तक बोलने वाला बना सकता है। दूसरा, यह रास्ता आजीविका का स्थायी और सुरक्षित साधन देकर उन्हें ईज्जत, आत्मनिर्भर या बराबरी की दुनिया में जीने के साथ-साथ पंचायत में उनका मुकाम़ भी दिलवा सकता है।

बिस्मिल्लाह खां ने जिस ‘सवई’ को बज़ाकर देश-विदेश में अपना नाम कमाया है, तिरूमली ज़मात वाले उस ‘सवई’ को कई पीढ़ियों से बज़ाते आ रहे हैं, मगर इन्हें कुछ नहीं मिला है।

इनके सामने तो यह सवाल भी है कि अपने घर में अपना चूल्हा जलाना और ख़ुद अपने बर्तनों में अपना ख़ाना पकाना- एक छाते से कहीं बढकर एक छट का होना, उसमें सबके साथ एकसाथ बैठना और हर एक फैसले में साझेदार हो जाना- सरपंच से लेकर बस कंडेक्टर, लाईनमेन, बैंक मैनेजर, नाकेदार, थानेदार, तहसीलदार, नेता से बतिया भर पाना क्या किसी के लिए इतना बड़ा सवाल भी हो सकता है ?

मगर यह तो हर सुबह कम से कम 20 से 40 किलोमीटर चलने का सवाल लिए उठते हैं। संघर्ष इन्हें दिनभर आटे जैसा तब तक गूँथता रहता है, जब तक की यह रोटी बनाने लायक न हो जाएं। कभी कमर तो कभी कंधों या सिरों पर 10 से 15 बच्चों को लटकाए इनका परिवार मधुमक्खी के छत्ते में लगी मधुमक्खियों सा भरा-पूरा दिखता है। और हमारे सामने नौ फीसदी की वृध्दि दर से चौतरफ़ा विकास की रेलगाड़ी बताने वाला जो समय चल है, क्या उसी समय की तरह सदा दौड़ते रहने वाले इनके नंगे पैरों के आगे, एकाध अल्पविराम का पहिया भी लगेगा ?

मगर सन्नाटा है कि अपने सवालिया निशान की बजाय पूर्ण विराम चाहता है।

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संपर्क : shirish2410@gmail.com

1 टिप्पणी:

honesty project democracy ने कहा…

बेहद शर्मनाक और दुखद स्थिति ,कहाँ है भारत में सरकार और सरकारी व्यवस्था ....