19.12.08

टाईगर रिजर्व में जनजातियों का शिकार

मेलघाट से लौटकर
मेलघाट सतपुड़ा पर्वतमाला की पश्चिमी पहाड़ी है जो महाराष्ट्र के जिला अमरावती की दो तहसील से जुड़कर बनी है. इस 2 लाख 19 हजार हेक्टेयर यानी मुंबई से 4 गुना बड़ी जगह पर कुल 319 गांव मिलते हैं. यहां करीब 3 लाख आबादी में से 80 फीसदी कोरकू जनजाति है. समुद्र तल से 1118 मीटर की ऊंचाई पर बसा यह हरा-भरा भाग `मेलघाट टाइगर रिजर्व´ कहलाता है. 1974 को `एम टी आर´ के नाम से मशहूर इस प्रोजेक्ट से तब 62 गांव प्रभावित हुए. आज भी 27 गांव के करीब 16 हजार लोगों को विस्थापित किया जा रहा है.

1947 से पूरे देश में विभिन्न परियोजनाओं से अब तक 2 करोड़ से अधिक आदिवासियों को विस्थापित किया जा चुका है. सरकार के मुताबिक बाघों को बचाने के लिए यहां विस्थापन जरूरी है लेकिन `राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण´ की रिपोर्ट स्वीकार करती है कि सत्तर के दशक में शुरू हुआ `प्रोजेक्ट टाइगर´ अपने लक्ष्य से काफी दूर रहा. देश में बाघों की संख्या अब तक के सबसे निचले स्तर तक पहुंच चुकी है. 2002 को देश में जहां 3642 बाघ थे वहीं अब 1411 बाघ बचे हैं. राज्यसभा के सांसद ज्ञानप्रकाश पिलानिया के मुताबिक- ``बाघों की संख्या को बढ़ाने के लिए बने रिजर्व एरिया अब उन्हें मारने की मुनासिब जगह बन गए हैं. इसके लिए अवैध िशकार करके उनके अंगों की तश्करी करने वाले व्यापारी जिम्मेदार हैं. बाहरी ताकतों की मिलीभगत से ही इतने बड़े गिरोह पनप सकते हैं.´ दूसरी तरफ विकास की तेज आंधी ने जंगलों का भविष्य खत्म कर दिया है. `भारतीय वन सर्वेक्षण´ की रिपोर्ट बताती है कि 2003 से 2005 के बीच 728 किलोमीटर जंगल कम हुआ. फिलहाल सघन जंगल का हिस्सा महज 1.6 फीसदी ही बचा है. इसी प्रकार 11 रिजर्व एरिया में जंगल घटा है. जाहिर है कि जनजाति को लगातार विस्थापित किए जाने के बावजूद न तो बाघ बच पाए हैं और न जंगल.

मेलघाट में कोरकू जनजाति का अतीत देखा जाए तो 1860-1900 के बीच प्लेग और हैजा से पहाड़ियां खाली हो गई थी. तब ये लोग मध्यप्रदेश के मोवारगढ़, बेतूल, शाहपुरा भवरा और चिंचोली में जाकर बस गए. उसके एक दशक बाद अंग्रेजों की नजर यहां के जंगल पर पड़ी. उन्हें फर्नीचर की खातिर पेड़ काटवाना और उसके लिए पहुंच मार्ग बनवाना था. इसलिए कोरकू जनजाति को वापिस बुलाया गया. आजादी के 25 सालों तक उनका जीवन जंगल से जुड़ा रहा. उन्होंने जंगल से जीवन जीना सीखा था. लेकिन जैसे-जैसे जंगल से जीवन को अलग-थलग किया जाने लगा वैसे-वैसे उनका जीना दूभर होता चला गया.

अनिल जेम्स कहते हैं कि-`बीते 34 सालों से `मेलघाट टाइगर रिजर्व´ में जनजातियों का शिकार जारी है. जैसे जैसे टाईगर रिजर्व सुरक्षित हो रहा है यहां रोटी का संकट गहराता जा रहा है. जनजातीय पंरपराओं का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो चुका है. यहां सामाजिक ऊथल-पुथल अपने विकराल रुप में हाजिर है. राहत के तौर पर तैयार सरकारी योजनाओं का असर बेअसर ही रहा. हर योजना ने लोगों को कागजों में उलझाए भर रखा और अब लोग भी उलझकर जंगल की मांग ही भूल गए हैं.

बांगलिंगा गांव में 85 साल के झोलेमुक्का धाण्डेकर ने जंगल की बातों के बारे में बताया कि-`पहले हम समूह में रहने के आदी थे. अपनी बस्ती को पंचायत मानते और हर परेशानी को यही सुलझाते. `भवई´ त्यौहार पर साल भर का कामकाज और कायदा बनाते. इन मामलों में औरत भी साथ होती. वह अपना हर फैसला खुद ही लेती. चाहे जिसे दूल्हा चुने और पति से अनबन या उसके मरने पर दूसरी शादी करे. शादी में लेन-देन और बच्ची को मारने जैसी बातें नहीं सुनी थी. संख्या के हिसाब से भी मर्द और औरत बराबर ही बैठते. हमारी बस्ती सागौन, हलदू, साजड़, बेहड़ा, तेंदू, कोसिम, सबय, मोहिम, धावड़ा, तीवस और कोहा के पेड़ों से घिरी थी. जंगल में आग लगती तो हम अपनी बस्तियां बचाने के लिए उसे बुझा देते. तभी तो हमें अंग्रेजों ने जंगलों में ही रहने दिया. वहां से सालगिटी, गालंगा और आरा की भाजियां मिलती. बेचंदी को चावल की तरह उबालकर खाते. कच्चा खाने की चीजों में काला गदालू, बैलकंद, गोगदू और बबरा मिल जाते. ज्वस नाम की बूटी को उबलती सब्जी में मिला दो तो वह तेल का काम करती. इसके अलावा तेंदू, आंवला, महुआ, हिरडा, बेहड़ा, लाख और गोद भी खूब थी. फल, छाल और बीजों की कई किस्मों से दवा-दारू बनाते. खेती के लिए कोदो, कुटकी, जगनी, भल्ली, राठी, बडा़ आमतरी, गड़मल और सुकड़ी के बीज थे. ऐसे बीज बंजर जमीन में भी लहलहाते और साल में दो बार फसल देते. इसलिए अनाज का एक हिस्सा खाने और एक हिस्सा खेती के लिए बचा पाते थे.

यह तब की सरल, खुली और समृद्ध जीवनशैली की झलक भर है. बीते 3 दशकों से भांति-भांति की दखलअंदाजियों ने यहां की दुनिया को बुरी तरह प्रभावित किया. 1974 में सबसे पहले वन-विभाग ने बाघ के पंजों के निशान खोजने और उनकी लंबाई-चौड़ाई तलाशने के लिए सर्वे किया. फिर जमीनों को हदों में बांटा जाने लगा. इस तरह जंगल की जमीन राजस्व की जमीन में बदलने लगी और लोग यहां से बेदखल हुए. 1980 के बाद सरकार ने इन्हें पानी की मछली, जमीन के कंदमूल और पेड़ की पित्तयों के इस्तेमाल से रोका. मगर पूरा जंगल बाजार के लिए खोल दिया गया. जंगल के उत्पाद जब बाजार में बिकने लगे तो यहां की जनजाति भी जंगल की बजाय बाजारों पर निर्भर हो गई. इससे चीजों का लेन-देन बढ़ा और उन्हें रूपए-पैसों में तौला जाने लगा. अनाज के बदले नकद की महिमा बढ़ी. नकदी फसल के रुप में सोयाबीन और कपास पैदा किया जाने लगा. बाजार से खरीदे संकर बीज अधिक से अधिक पानी और रसायन मांगने लगे. समय के साथ खेती मंहगी होती गई. इस बीच नई जरूरतों में इजाफा हुआ और उनके खाने-पीने, रहने और पहनने में अंतर आया. आज कोरकू लोग कई जडियां और उनके उपयोग नहीं जानते.´´

यह तब की सरल, खुली और समृद्ध जीवनशैली की झलक भर है. बीते 3 दशकों से भांति-भांति की दखलअंदाजियों ने यहां की दुनिया को बुरी तरह प्रभावित किया. 1974 में सबसे पहले वन-विभाग ने बाघ के पंजों के निशान खोजने और उनकी लंबाई-चौड़ाई तलाशने के लिए सर्वे किया. फिर जमीनों को हदों में बांटा जाने लगा. इस तरह जंगल की जमीन राजस्व की जमीन में बदलने लगी और लोग यहां से बेदखल हुए. 1980 के बाद सरकार ने इन्हें पानी की मछली, जमीन के कंदमूल और पेड़ की पित्तयों के इस्तेमाल से रोका. मगर पूरा जंगल बाजार के लिए खोल दिया गया. जंगल के उत्पाद जब बाजार में बिकने लगे तो यहां की जनजाति भी जंगल की बजाय बाजारों पर निर्भर हो गई. इससे चीजों का लेन-देन बढ़ा और उन्हें रूपए-पैसों में तौला जाने लगा. अनाज के बदले नकद की महिमा बढ़ी. नकदी फसल के रुप में सोयाबीन और कपास पैदा किया जाने लगा. बाजार से खरीदे संकर बीज अधिक से अधिक पानी और रसायन मांगने लगे. समय के साथ खेती मंहगी होती गई. इस बीच नई जरूरतों में इजाफा हुआ और उनके खाने-पीने, रहने और पहनने में अंतर आया. आज कोरकू लोग कई जडियां और उनके उपयोग नहीं जानते.´´

पसतलई गांव के एक युवक ने नाम छिपाने की शर्त पर बताया कि- `जंगली जानवरों का शिकार करने वाली कई टोलियां यहां घूम रही हैं. कमला पारधन नाम की औरत इसी धंधे में लिप्त थी. बाद में पुलिस ने उसे धारणी में गिरफ्तार कर लिया.´ यहां जानवरों के हमलों की घटनाएं भी बढ़ रही हैं. कुंड गांव की बूढ़ी औरत मानु डाण्डेकर ने जानवरों से बचने के लिए तब की झोपड़ी को याद किया-`वह लकड़ियों और पत्तों की बनी होती, ऊंचाई हमसे 2-3 हाथ ज्यादा रहती. छत आधी गोल होती जो पूरी झोपड़ी को ढ़क लेती. उसमें घुसने के लिए दरवाजा उठाकर जाते. दरवाजे की हद इतनी छोटी रखते कि रेंगकर घुसा जाए. झोपड़ी के चारों तरफ 2-3 फीट लंबी पत्थरों की दीवार बनाते. रात को झोपड़ी के बाहर आग सुलगाते. पूरी बस्ती प्यार, तकरार, शादी, शिकार, जुदाई और पूजन से जुड़े किस्सों पर गाती-धिरकती. जैसे प्यार के गीत में लड़की से मिलने के लिए रास्ता पूछने, शादी के गीत में दूल्हा-दुल्हन बनकर आपस में बतियाने और जुदाई के गीत में शिकार पर गए पति के न लौटने की चर्चा होती.´´

यह बस्तियां अपनी पंरपरा और आधुनिक मापदण्डों के बीच फसी हैं. घरों की दीवारों पर रोमन केलेण्डर और रात में जलती लालटन लटकती हैं. बाहरियों के आने से इनके भीतर हीनता बस गई.यह खुद को बदलने में जुटे हैं. यहां के मोहल्लों ने कस्बों की नकल करके अपनी शक्लों को बिगाड़ रखा है. अब कोरकू बोली की जगह विदर्भ की हिन्दी का असर बढ़ रहा है. जबकि कार्यालय की भाषा मराठी है. इसलिए कोरकू जुबान फिसलती रहती है. खासकर स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को जानने और बोलने में मुश्किल आती है. कोरकू लोग कहते हैं कि सबकुछ खोने के बाद हमें कुछ नहीं मिला. स्कूल के टीचर और अस्पताल के डॉक्टर मैदानी इलाकों में बने हुए हैं. लेकिन हमारे हिस्से में न मैदान आया, न पहाड़. हम कहां जाए?

16.12.08

चीनी की मिठास में घुलता बचपन

शिरीष खरे

मराठवाड़ा से मुंबई लौटते वक्त, छुकछुक करती ट्रेन के साथ बचपन की कविता भी चल रही है- ``शिकारी आता है/ जाल फैलाता है/ दाने का लोभ दिखाता है/ लेकिन हमें जाल में नहीं फसना चाहिए.´´ लेकिन मराठवाड़ा में शोषण का जाल केवल फैला ही नहीं है, काफी कसा हुआ है इसलिए चिड़िया नहीं जानती कि वो जाल के अंदर है या बाहर. सभी शिकारियों ने हाथ मिला लिया है इसलिए उनका शिकार खुद-व-खुद खेतों तक आ जाता है. सरकारी आकड़ों के हिसाब से यहां गन्ना अधिक होता है. लेकिन ऐसा है नहीं, उससे कहीं अधिक यहां के खेतों में शोषण होता है लेकिन इसकी पैदावार का आकड़ा किसी के पास नहीं मिलता.


सुबह-सुबह एक ट्रेक्टर से जुड़ी दो ट्रालियों में दर्जनभर मजदूर परिवार बैठे हैं. इन्होंने अपने साथ अनाज, कपड़े, बिस्तर और कुछ जरूरी सामान बांध लिया है. बहुत छोटे बच्चे अपनी मांओं के गोद में सोए हैं, उनसे थोड़े बड़े अपनी बहनों के कंधो पर. एक कोने में बकरियों के गले की रस्सियां ढ़ीली करता बुजुर्ग भी है. ट्रालियों से बाहर पैर लटकाए सारे मर्दों के चेहरों पर एक जैसा रुखापन छाया है. उनके पीछे बैठी औरतों ने भी चुप्पी साध रखी है. मैंने पूछा - ``कहां जाना होगा ?´´ उनमें से एक औरत ने तीन टुकड़ों में कहा- ``बहुत दूर... कर्नाटक.... बीदर कारखाने में´´ फिर अगला सवाल-``लौटना कब होगा ?´´ जबाव आया- ``लौटना, बारिश के दिनों तक ही होगा.´´


यह महाराष्ट्र का मराठवाड़ा इलाका है. यहां के गावं को शहरों से जोड़ने वाली सड़कों पर ऐसी कई गाड़िया दौड़ रही हैं. जिला मुख्यालय उस्मानाबाद से करीब 100 किलोमीटर दूर कलंब तहसील की कई बस्तियां भी खाली हो चुकी हैं. मस्सा गांव के एम.ए. पास एक दलित युवक विनायक तौर ने बताया कि- `यहां दीवाली से बारिश तक हजारों मजदूर जोड़े (पति-पत्नी) चीनी कारखानों के लिए गन्ना काटने जाते हैं. इसमें अधिकतर दलित, बंजारा और पारदी जनजाति से होते हैं. इनके पास न तो खेती लायक जमीन है और न ही अपना कोई धंधा. गांव से बाहर रहने से इन्हें पंचायती योजनाओं का फायदा नहीं मिलता. इनकी बस्तियां भी बदलाव से अछूती रह जाती हैं. सबसे ज्यादा हर्जाना तो स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को भुगतना पड़ता है. ये बच्चे गन्नों के जिन खेतों में काम करते हैं, आप वहां जाकर देखिए शोषण की कितनी कहांनिया बिखरी है.´´

'चाईल्ड राईट्स एण्ड यू´ ने स्थानीय संस्था `लोकहित´ के साथ मिलकर कलंब तहसील के 29 गांवों का एक सर्वे किया और पाया कि 6-14 साल के कुल 1555 बच्चों में से 342 स्कूल नहीं जाते जिसमें 193 लड़कियां हैं. इसके अलावा ड्रापआउट बच्चों की संख्या 213 है जिसमें से भी 89 लड़कियां हैं. एक साल में 19 बाल-विवाह के मामले भी सामने आए. यहां 332 परिवार ऐसे हैं जिनके पास खेती के लिए जमीन नहीं. इसी प्रकार 125 परिवारों को राशन कार्ड नहीं मिला. इन दोनों संस्थाओं ने 29 गांवों के बच्चों को पढ़ाई से जोड़ने के लिए मुहिम चलाने का फैसला लिया है. इससे एक छोटे से हिस्से में बदलाव की उम्मीद बंधी है लेकिन पलायन की समस्या ने यहां विकराल रूप धारण कर लिया है. पूरा मराठवाड़ा ही इसकी कैद में नजर आता है.

मराठवाड़ा का यह इलाका चीनी उत्पादन का केन्द्र है. 1982 को सबसे पहले उस्मानाबाद के ढ़ोकी में `तेरणा चीनी कारखाना´ लगा था. सरकारी आकड़ों के मुताबिक आज यहां करीब 30 कारखाने चालू हैं जिसमें 7 उस्मानाबाद जिले में ही है और उनमें से भी 4 कलंब तहसील में. `तेरणा चीनी कारखाना कमेटी´ के एक सदस्य ने नाम छिपाने की शर्त पर कहा- `यहां हर कारखाना 25-50 किलोमीटर तक के खेतों से गन्ना उठाना चाहती है. इसके लिए वह मुकादम को जरिया बनाती है. हर मुकादम 5 से 10 लाख रूपए लेकर कमेटी से करार करता है. वह 12-20 जोड़ों को 6-10 महीनों तक काम करवाने की गारंटी देता है. मुकादम आसपास के कई जोड़ों से संपर्क रखता है. एक कारखाने से करीब 200-250 मुकादम और उनसे 2500-3000 जोड़े जुड़ते हैं.´´

इसके आगे की बात सामाजिक कार्यकर्ता बजरंग टाटे ने कही- ``मुकादम इस इलाके में ऊंची जाति के ताकतवर लोग बनते हैं. वह जोड़ों को 25-30 हजार रूपए देकर 6-10 महीनों तक काम पर जाने के लिए राजी करता है. वह जोड़ों से स्टाम्प पेपर पर दस्तखत या अंगूठा लगावाता है. कई मुकादमों के करार बहुत दूर के कारखानों से होते हैं इसलिए यहां के जोड़े नगर (200 किमी), पुणे (300 किमी), कोल्हापर (500 किमी) और कर्नाटक (700 किमी) के बिदर, आलूमटी तथा बेड़गांव इलाकों तक जाते हैं. इन्हीं करारों के तहत वहां से जोड़े यहां आते हैं.´´ कलंब के बालाजी मुले ने बताया कि- `जब मुकादम को काम की तारीखों की सूचना मिलती है तब जोड़े जमा करने और उन्हें दूसरे इलाकों में ले जाने के लिए बहुत कम समय मिलता है. ऐसे हालात में कोई मुकादम रियायत नहीं बरतना चाहता.' डोराला गांव में माया शिंदे ने इसी साल हुई एक घटना सुनाई- ``भारत सोनटके ने जब 20 हजार रूपए लेकर 6 महीने का करार किया तब नहीं जानता था कि उसे टीबी जैसी बीमारी हो जाएगी. वह पुणे में अपना इलाज करवा रहा है, यह खबर पाते ही मुकादम आया और भारत की पत्नी के साथ 50 साल से अधिक उम्र के मां-बाप को काम पर ले गया. उनके साथ 6 साल से कम उम्र की दो बिच्चयां भी कोल्हापुर के किसी खेत में होगी.´´

नवंबर में हमने देखा कि कारखानों के आसपास कई जोड़े जमा होने लगे हैं. यहां 15-20 दिन रूकने के लिए सभी की बस्तियां बन चुकी हैं. इसके बाद छोटे-छोटे समूहों में बांटकर इन्हें काम की जगहों पर भेजा जाएगा. फिर काम के लिहाज से ही इनकी बस्तियां बदलती रहती हैं. `धाराशिव चीनी कारखाना, चौरारूवली´ से करीब 25 किलोमीटर दूर, खेड़की गांव के खेत में एक ऐसी ही बस्ती में जाना हुआ. यह 12 घरों की एक अस्थायी बस्ती है जिसका हर घर पन्नी, कपड़ा और कुछ लकड़ियों की मदद से खड़ा भर है. क्योंकि सभी घर एक-दूसरे से दूर-दूर हैं इसलिए पूरी बस्ती अव्यवस्थित नजर आती है. घर में सबके लिए एक ही कमरा है. इस कमरे में पैर पसारने भर की जगह है. उबड़-खाबड खेत में न कोई गली है और न ही मैदान. बच्चे पानी के लिए काफी दूर जाते हैं और औरतों को भी खुले में ही नहाना होता है. सबकी रातें अंधेरे में ही कटती हैं. सुबह खेतों में जाते वक्त मजदूरों के हाथों में कोयना होता है. कोयना लोहे का बना वह धारदार हथियार है जिससे गन्ना काटा जाता है. हर मजदूर गन्ने की तरफ झुककर पहले उसकी जड़ों को काटता हैं, फिर उसे दो भागों में बांटकर पीछे फेंकता हैं. उसका जोड़ीदार गन्ने के इन टुकड़ों को बांधता हैं. इस तरह हर जोड़ा 2 टन गन्ना काटकर, फिर उन्हें बांधकर ट्रालियों में भरता है. कारखानों से ट्रालियों का आना-जाना देर रात तक चलता है. कई बार इन कामों में बच्चे भी शामिल हो जाते हैं. 6 से 14 साल के बच्चे-बिच्चयां घरों में खाना बनाने और सफाई का काम करते हैं. ऐसी ही एक बच्ची इशाका गोरे ने कहा कि वह तीसरी में है और यहां से जाने के बाद चौथी में बैठेगी. उसे नहीं मालूम कि जब वह स्कूल पहुंचेगी तो परीक्षा खत्म हो जाएगी. उसका परिवार सागली जिले के कराठ गांव से आया है. इशाका के पिता याविक गोरे का मानना है कि-`यह पढ़े तो ठीक, नहीं तो 4-5 साल में शादी करनी ही है. फिर जोड़ा बनाकर काम करेगी.´ यहां अधिकतर लोग अपने बच्चों की शादियां कम उम्र में ही कर देते हैं. इन्हें लगता है कि परिवार में जितने अधिक जोड़े रहेंगे, आमदनी उतनी ही अधिक होगी. अधिकतर रिश्तेदारियां काम की जगहों पर हो जाती हैं. इस तरह बाल-विवाह की प्रथा यहां नए रुप में उजागर होती है.

हमने जिन बस्तियों का अध्ययन किया उन बस्तियों में बच्चों से जुड़ी कई दिक्कते एक समान पायी गई, जैसे- बढ़ते बच्चों को पर्याप्त और समय पर भोजन नहीं मिलता जिससे कुपोषण के मामलों में बढ़ोतरी होती है. इन खेतों में बच्चे सर्दी के मौसम में बीमार होते हैं. इसी तरह गन्ना काटते वक्त कोयना लगने, सांप काटने और बावड़ियों में गिरने की घटनाएं होती रहती हैं. ऐसे खेतों से `प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र´ करीब 15-20 किलोमीटर दूर होते हैं इसलिए इमरजेंसी के दौरान अनहोनी का डर रहता है. बीड जिले के राक्षसबाड़ी निवासी सुभाष मोहते ने बताया कि- ``दो साल पहले `येनसाई चीनी कारखाना, राजनी´ के लिए काम करते वक्त जब मेरी बीबी बीमार हुई तो कुछ औरतों ने खेत में ही पर्दा लगाकर गर्भापात कराने की कोशिश की. अचानक उसकी हालत बिगड़ गई और वह मर गई.´´

`शंभु महाराज चीनी कारखाना, हवरगांव´ के लिए गन्ना काटने वाली शोभायनी कस्बे की चिंता अपने बच्चों को लेकर हैं-`हमारे बच्चे पास होकर भी दूर हैं. खेलने-पढ़ने के दिनों में कितना काम करते हैं. यह कभी चिड़चिड़ाते हैं तो कभी चुपचाप हो जाते हैं. गांव के बच्चों से बहुत अलग हैं यहां के बच्चे.´हमारे एक दोस्त ने पूछा-`तो इन्हें घर क्यों नहीं घुमा लाती ?´इसका जबाव मुद्रिका गोरे ने दिया-`जब चुनाव आते हैं तो उम्मीदवार वोट डलवाने के लिए घर ले जाते हैं, उसके बाद वापिस यहीं छोड़ देते हैं. फिर हमारा हाल पूछने कोई नहीं आता और न ही किसी को घर जाने दिया जाता है.´´ अधिकतर जोड़ों ने बताया कि मुकादम उनसे दिये गए रूपए के बदले बहुत काम लेता है. अनबन होने पर मारपीट तक करता है. बाभल गांव के शिवाजी बाग्मारे ने अपने यहां की ऐसी ही घटना का जिक्र किया-`बीते साल यहां गन्ना की पैदावार अधिक हुई थी इसलिए कई मुकादमों ने मियाद खत्म होने के बावजूद काम करवाया. हमारे यहां परवानी जिले के गंगाखेड़े गांव से आए 10 जोड़ों ने इसका विरोध किया और एक रात बिना बताए मिनी टेम्पो से भागना चाहा लेकिन 3 किलोमीटर दूर पहुंचते ही पकड़ा गए. इसके बाद उनके बच्चे और औरतों तक को खूब मारा. मुकादम के आदमियों ने मिनी टेम्पो भी तोड़-फोड़ दिया.´´

सरकार ने गांव में ही `हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम´ देने के लिए `महाराष्ट्र ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना´ चलाई है. इस योजना का सच जानने के लिए जब विकासखंड कलंब के कार्यालय गए तो कई हेरतअंगेज तथ्य उजागर हुए. `पंचायत विभाग´ के `विस्तार अधिकारी´ बसंत बाग्मारे ने बताया-`योजना को लागू हुए 1 साल बीत गया. इस ब्लॉक के 89 गांवों में से 7 में ही काम चालू है. कुल 35 कामों में से 1 ही पूरा हुआ है, बाकी 34 प्रगति पर हैं. इस ब्लॉक में 50,000 से भी अधिक मजदूर है लेकिन 2500 को ही काम मिल सका. इनमें से भी कईयों का भुगतान नहीं हुआ. इसके लिए जिले से करीब 5 लाख रूपए आने का इंतजार है.´´ जब इस निष्क्रियता के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा-`इस योजना में कागजी औपचारिकता अधिक है.´लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता बजरंग टाटे ने इसका दूसरा कारण बताया- `स्थानीय पंचायतों में ऊंची जातियों का राज है. यह खेती का मौसम है और सवर्णों को अपनी जमीन पर काम करने के लिए मजदूर चाहिए. यदि मजदूरों को ऐसी योजना का पता लग गया तो उनका काम बंद हो जाएगा. इसलिए ऐसी योजनाओं को छिपाया जाता है. सबकी मिलीभगत से यहां शोषण का जाल फैला है.´